साक्षी हैं पीढ़ियाँ ‘शब्दयात्रा भागलपुर’ ने किया ‘हरिकुंज-जन्मशती-व्याख्यानमाला दो’ का आयोजन

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साक्षी हैं पीढ़ियाँ ‘शब्दयात्रा भागलपुर’ ने किया ‘हरिकुंज-जन्मशती-व्याख्यानमाला दो’ का आयोजन

ANA/Prem Kishan

भागलपुर। पूर्वोत्तर भारत के संत-साहित्यकार तथा अंगजनपद के सांस्कृतिक महाप्राण कीर्तिशेष श्री हरिलाल कुंज जी की ‘जन्मशती-वर्ष’ पर ‘शब्दयात्रा भागलपुर’ द्वारा ‘हरिकुंज जन्मशती व्याख्यामाला दो’ का ऑनलाइन आयोजन किया गया – ‘साक्षी हैं पीढ़ियाँ’। जिसमें देश की लब्धप्रतिष्ठ कथावाचिका मानस कोकिला कृष्णा मिश्र, सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक कुमार ठाकुर, सेवानिवृत्त जनकल्याण पदाधिकारी डॉ मीना सिंह, बिहार के सुप्रसिद्ध भजन गायक एवं कीर्त्तनकार अर्जुन शर्मा, बिहार लोक सेवा आयोग पटना के उपसचिव डॉ मनोज कुमार झा और मिल्लत कॉलेज परसा गोड्डा के प्राचार्य डॉ तुषार कांत ने अपने व्याख्यान में हरिकुंज जी के विभिन्न आयामों पर विस्तार से चर्चा की। भैया-भाभी ने हमें ऐसे सहेज कर रखा जैसे मेले में खोया बच्चा मिल गया हो। अध्यक्षता करते हुए भारत की लब्धप्रतिष्ठ कथा-वाचिका मानस कोकिला कृष्णा मिश्र ने हरिकुंज जी के प्रति कृतज्ञता सहित उन्हें नमन कर अपनी अनमोल स्मृतियों को कह सुनाया – ” कुछ नाते मोह-छोह से जुड़े, न जाने किन जन्मों के पुण्य स्वरूप जीवन में आते हैं | ऐसा ही एक नाता हमारा और हरि भैया का था। 1967 में श्री मीरा जयंती के आमंत्रण पर हमारा पहली बार भागलपुर आना हुआ। झारखंड के छोटे से गाँव से, राम नाम और ढाई आखर की पोथी लिए, जब हम चले तो पता न था कि इतना आत्मीय कोई मिलने वाला है। हम उनके घर ही ठहरे थे | हरि भैया, सीता भाभी ने हमें ऐसे सहेज कर रखा जैसे मेले में खोया बच्चा मिल गया हो | उनके बच्चे तब छोटे ही थे । रंजन मेरे हमउम्र होंगे । रेखा, नीलम जैसी दुलारी बहनें और पारस, चंदन जैसे नन्हें भाई। महीनों हम उनके घर रहे | माता पिता की तरह भैया भाभी हर कथा में हमारे साथ रहे | हमारे गांव बेलचम्पा भी वे दोनों गए थे | कोयल नदी के किनारे कितनी भक्ति पूर्ण एवं पारिवारिक वार्ताएँ हमारी हुई होंगी। हमारे विवाह की योजना भी उनकी ही थी | एक अभिभावक की तरह उन्होंने सब कुछ संभाला था। बहुत दिन बीत गए | न जाने गंगा का कितना पानी बहा इतने दिनों में | पर आज भी मन के एक कोने में सब कुछ वैसे का वैसा सँजोया धरा है | कृतज्ञता सहित, बार बार नमन उनको ! ” मैंने आश्चर्य से पूछा मेरी तस्वीर आपके ‘शोकेस’ में ? उन्होंने ने कहा ‘अच्छी आई थी !’ सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक कुमार ठाकुर ने उनकी अच्छाई और सौम्य स्वभाव को नमन करते हुए कहा – ” हरिलाल कुंज जी से मेरी पहली मुलाकात 1961 में हुई थी, जब टीएनबी कॉलेज में दाखिला केलिए ‘चित्रशाला’ में पासपोर्ट-साइज फोटो खिचवाने गया था। कुछ दिनों बाद ‘चित्रशाला’ के सामने से गुजर रहा था तभी ‘शोकेस’ में लगी मेरी वही तस्वीर दिखी | कॉलेज से लौटते समय उनसे मिला | मुझे देखकर मुस्कुराते हुए उन्होंने मेरे और पिता जी के कुशल-क्षेम की जानकारी चाही | मैंनेे आश्चर्य से पूछा मेरी तस्वीर आपके ‘शोकेस’ में लगी है ? तो उन्होंने कहा कि सुन्दर आई थी इसलिए | उसके बाद उन्होंने मेरे लिए चाय और समोसा मंगवाया। मैंने अपने लिए भी उसकी एक प्रति तैय्यार करवा देने को कहकर उसकी कीमत जाननी चाही | तो उन्होंने कहा कि आप अभी पढ़ रहे हैं जब पैसा कमाईएगा तब कीमत ले लेंगे ! अभी वह मेरी तरफ से भेंट होगी | नाश्ता आदि करके स्टूडियो से मैं निकल गया। पुन: एक दिन उधर से गुजरते समय स्टूडियो के बाहर उनके साथ हिंदी के प्रोफेसर डॉ बेचन जी को देखकर मैं साइकिल से उतर गया और उन दोनों को प्रणाम किया। तभी मुझे रोक कर हरिकुंज जी अंदर गए और मेरी तस्वीर, जो बड़े साईज में बनी थी सुंदर ढंग से पैक किया हुआ मुझे दिया। घर आने पर मैंने बाबूजी को तस्वीर दिखाई, तो अति प्रसन्नता के साथ उन्होंने फोन करके हरिकुंज जी के प्रति आभार व्यक्त करते कहा – ‘अपने तो मेरे बेटे की बडी सुंदर तस्वीर बना दी है ! इसके बाद उनसे अक्सर मुलाकात होने लगी | हरिकुंज जी मुझे काफी स्नेह करने लगे थे | उनकी अच्छाइयाँ और सौम्य स्वभाव मुझे आज भी याद आती हैं | बस मैं तो मीरा ही बन गई थी, लगता ही नहीं था कि मैं कोई दूसरी हूँ। सेवानिवृत्त जनकल्यण पदाधिकारी डॉ मीना सिंह ने उन्हें याद करते हुए बताया – ” श्री हरिलाल कुंज जी, जिन्हें मैं चाचाजी बोलती थी | वे मेरे पिता के मित्र थे | वे सर्वगुण संपन्न साहित्यकार होने के साथ एक बहुत बड़े कलाकार थे। 1978-80 ई. की बात होगी ग्रैजुएशन कर मैं एमए में दाखिला की तैयारी कर रही थी। अपने नाटक ‘बाबरी मीरा’ में उन्होंने मुझे मीरा की मुख्य भूमिका वाली रोल दी थी | इससे पूर्व मैंने कभी मंच पर अभिनय नहीं किया था | मैं बहुत घबड़ाई हुई थी।उनकी मंझली बेटी पूर्णिमा भी हमारे साथ काम कर रही थी बिल्कुल पारिवारिक माहौल था। करीब छह महीने तक ‘संगीत भारती’ में घंटों रिहर्सल चला | नाटक के लेखक और निर्देशक वे खुद थे | उनका निर्देशन भी फिल्मिस्तान की तरह होता था। नाटक के अंत में मीरा को कृष्ण में समा जाना था | मुझे अंतर्ध्यान होकर रोल करना था।कान्हा-कान्हा बोलते बेसुध होकर गिर पड़ना था, जैसे मीरा के प्राण-पखेडू उड़ गए हों। इस दृश्य को देख दर्शक रो पड़े थे, कई मुस्लिम भाई भी थे जिनकी आँखें नम हो गई थीं। बस मैं तो मीरा ही बन गई थी लगता ही नहीं था कि मैं कोई दूसरी हूँ | क्यों कि चाचाजी ने कूट-कूट कर मेरे अंदर मीरा के उस पात्र को भक्ति भावना से भर दिया था। बेताल बजाने वाले को हारमोनियम पर ताल ठोककर समझाते थे कि नाल या ढोलक गलत बज रहा है। बिहार के सुप्रसिद्ध भजन गायक एवं कीर्त्तनकार श्री अर्जुन शर्मा ने उन्हें नमन करते हुए कहा – ” हरि बाबू को मैंने 1966 के विश्वकर्मा पूजा में बड़े भैया जगदीश शर्मा के खरमनचक मोटर-गैरेज में देखा धा। बाद में 68-69 में सिटी डाकघर के सामने मीरा जयंती में जगदीश भैया ही मुझे मंच पर ले गए | छोटी उम्र की उमा भारती और देवी शकुंतला गोस्वामी भी आई थीं | उसमें मैंने झाल भी बजाया था | उसके बाद से मीरा जयंती में जाने लगा | ‘चित्रशाला’ में भी उनके दर्शन हो जाते थे। वे पूर्वोत्तर भारत के आध्यात्मिक संत-साहित्यकार थे | हरिबाबु कलारनेट, सितार, वायलिन, हारमोनियम, झाल खूब बजाते थे | संचालन भी सुंदर करते थे | सूर-ताल का अद्भुत ज्ञान था उन्हें, गौरांग संकीर्त्तन के वृन्दवादन में जब हारमोनियम बजाते, तो लोग खड़े-खड़े भी सुनते रहते थे | उनके द्वारा मीरा भजनों को गाते समय सुनने बाले रो पड़ते थे। वे अपने को महंत नहीं समझते, किसी में भेद नहीं कर सब में समाये रहते थे | कोई कलाकार जब बेताल बजाते, तो हारमोनियम पर ताल ठोककर कर उनको समझते थे कि नाल या ढोलक गलत बज रहा है ! उनका सभी आदर करते थे, नाथनगर में दुर्गा अष्टमी के दिन चाँद मिशर जी के व्यायामशाला में भी उनको देखता, वहाँ उनकी कुर्सी सबसे अलग और सुरक्षित रहती थी। गौरांग संकीर्त्तन समिति को मैं सपने में भी देखता रहता हूँ कि हरिबाबु संचालन कर रहे हैं और गा रहे हैं | साहित्यिक जौहरी थे हमारे श्री हरिकुंज चाचा जी बिहार लोकसेवा आयोग के उपसचिव डॉ मनोज कुमार झा उन्हें सादर नमन कर सुनाया – ” घूँघराले बालों वाले हरि चाचा जी की वह मनोहर, हँसमुख छवि आज भी उन्हें याद करते ही अनायास मानस पटल पर उभर आती है। पिताजी (स्व० डा बेचन) के अभिन्न मित्र ; हमारे परिवार के एक अभिभावक और उसके हर महत्वपूर्ण निर्णय लेने के मुख्य सलाहकार के रूप में, हमने होश संभालते ही हरि चाचा जी को देखा था। भागलपुर जिला हिन्दी साहित्य सम्मेलन के वे प्राण थे | एक सुधी साहित्यकार, नाटककार के रूप में उनकी विशिष्ट पहचान थी | वे ऐसे साहित्यिक जौहरी थे, जिन्होंने भागलपुर में हिन्दी एवं अंगिका के कई साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों को पहचान दी। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था – कभी छायाकार के रूप में, तो कभी गौरांग संकीर्त्तन समिति कार्यकर्ता के रूप में, कभी सांस्कृतिक-साहित्यिक संगोष्ठी आयोजनकर्त्ता के रूप में, कभी एक किस्सागो के रूप में, तो कभी सशक्त अभिनयकर्त्ता के रूप में, उन्होंने यहाँ के साहित्याकाश में अपना एक अलग स्थान बनाया था। संकीर्त्तन मंडली के साथ उन्होंने काफी घुमक्कड़ी का जीवन भी जिया था। अपने ऊपर घटित सच्ची घटनाओं को जब वे सुनाते, तो लगता था हम स्वयं उस घटना में जी रहे हों | ऐसा जीवंत किस्सागो हमने किसी को नहीं देखा | उन्हें जन्म शताब्दी पर शत-शत सादर नमन। स्वप्नदर्शी बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न थे मेरे चाचा हरिकुंज जी। मिल्लत कॉलेज परसा गोड्डा के विद्वान प्राचार्य डॉ तुषार कान्त ने उन्हें अंगजनपद की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र-बिंदु बताते हुए कहा – ” भागलपुर के खलीफाबाग चौराहे पर अवस्थित भव्य ‘चित्रशाला’ लगभग 80 वर्षों से भागलपुर और बाहर से आये साहित्यकारों-कलाकारों को न केवल प्रश्रय देता रहा है, बल्कि उन्हें प्रतिभा निखारने-संवारने के अवसर भी प्रदान करता रहा है। मेरा घर ‘चित्रशाला’ से कुछ ही दूरी पर बूढ़ानाथ पथ में स्थित है | बचपन में बाबूजी की उंगली पकड़ ‘चित्रशाला’ में आयोजित साहित्यिक-सांस्कृतिक गोष्ठियों में जाता रहा हूँ । चित्रशाला’ जैसी संस्थात्मक स्टूडियो के शिल्पकार और मालिक आदरणीय हरिकुंज जी को पहली बार वहीं देखा था, संभवतः 1964-65 में । मेरे बाबूजी तारकेश्वर प्रसाद जी को वे ‘दादा’ कहा करते थे | उनके साथ मुझे देखते तो झट से सीने से लगा लेते, प्यार करते |
क्या व्यक्तित्व था उनका। घुंघराली लंबी लटाओं के मध्य क्लीन-शेव्ड भव्य तेजोदीप्त चेहरा और बड़ी-बड़ी, जादुई, स्वप्नदर्शी, काले फ्रेम के चश्में से झांकती आंखें बरबस किसी को भी हिप्नोटाइज़ करने में सक्षम थीं और यही वजह थी कि जिसने भी उनकी आंखों में झांका, सदा के लिए उनका हो गया। वे अंगजनपद की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र बिंदु थे | जन्मशती पर उन्हें मेरा सादर नमन ।

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